(Dr Eknath Patil)
बी. ए. द्वितीय वर्ष,प्रश्नपत्र क्रं. 06 कितने प्रश्न करूँ खंडकाव्य का कथानक :
प्रस्तुत खंडकाव्य की शुरूआत सीता के स्वयंवर की घटना से होती है। मिथिलेश्वर राजा अपनी प्रिय पुत्री सीता के स्वयंवर का आयोजन करते हैं। स्वयंवर में अपने पूर्वजों से प्राप्त महाकाय शिव धनुष्य उठानेवाले वीर से सीता का विवाह संपन्न कराने की घोषणा करते हैं। अनेक वीर भूपति स्वयंवर में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते
हैं, परंतु उनमें से एक भी वीर भूपति महाकाय शिव-धनुष्य उठा नहीं पाते। तभी स्वयंवर स्थल पर अयोध्या के राजकुमार राम का आगमन होता है। राम के स्वभाव और सौंदर्य से सीता काफी प्रभावित होती है। वह ईश्वर से प्रार्थना करती है कि यही वीर मुझे मिल जाए। राजकुमार राम भरी सभा में शिव धनुष्य उठाकर धराशायी कर देते हैं। चारों ओर जयघोष होता है। मिथिलेश्वर हर्षोल्लास के साथ स्वयंवर संपन्न करवाते हैं। राजकुमारी सीता राम के गले में वरमाला डालती है। सीता आगामी जीवन की उत्कंठा मन में लेकर अपनी सखियों से परायी होकर पति राम के साथ सपने संजोती है। इस प्रसंग को देखकर उर्मिला, मांडवी के मन उमंग से भर जाते हैं। रघुकुल की मान-प्रतिष्ठा बनाए रखने का प्रण करके सीता, राम के साथ अयोध्या में प्रवेश करती है। राजा दशरथ और माता कौशल्या और कैकयी का आशिर्वाद लेती है। उसे सभी का प्यार मिलता है। अयोध्या नगरी को नववधू सा सजाया जाता है। चारों ओर हर्षो उल्हास का वातावरण बन जाता है। ऋतुएँ आती जाती रही। दिन-रात सीता के मन में प्रतिपल सिर्फ 'राम' की ध्वनि होती रही।
राम राजा दशरथ के ज्येष्ठ एवं सर्वगुण संपन्न प्रिय पुत्र थे। दशरथ राम को अयोध्या के उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। राम के राज्याभिषेक की घोषणा की जाती है। परंतु विधि को कुछ और ही मंजूर था। राजा दशरथ दिल पर पत्थर रखकर कैकयी को दिए वचन को निभाते हैं। राम को चौदह साल बनवास सुनाते हैं। प्रिय राजकुमार को चौदह साल का बनवास की बात सुनकर प्रजा दुःखी हो जाती है। कौशल्या और कैकयी का आशीर्वाद लेकर राम बनवास के लिए निकल पड़ते हैं। माता कौशल्या की आँखों से बहते हुए आँसुओं को रोखते हैं। क्रोधित लक्ष्मण को धर्मोपदेश से रोकते हैं। तभी सीता को एहसास होता है कि, बन में निवास करने का वरदान तो मुझे कौमार्यावस्था में मिला है। वह मानसिक और शारीरिक दृष्टि से राम के प्रति समर्पित है। वह हर घडी राम के साथ सायें की तरह खड़ी रहती है। बनवास के समय रामने प्रकृति के हर पक्षों के साथ तादात्म्य स्थापित किया। अपने शक्ति और कौशल्य के बल पर बुरी प्रवृत्ति का संहार किया, कितनों का उद्धार किया, तो कितनों को मित्र बनाया।
अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए लंकापति रावण 'कंचन-मृग' वेश धारण करके मारिच राक्षस को भेजता है। सीता इस कंचनमृग से काफी प्रभावित होती है। वह राम से कंचनमृग प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करती है। सीता की इच्छा पूरी करूं के लिए राम वाटिका के सामने लक्ष्मण रेखा खिंचकर कंचन - मृग के पीछे चले जाते हैं। राम के तीर से घायल 'कंचन-मृग' राम के आवाज में लक्ष्मण को पुकारता है। भयभीत सीता लक्ष्मण के मना करने पर भी जबरदस्ती राम की रक्षा हेतु लक्ष्मण को भेजती है। तभी कामी रावण भिक्षुक का रूप धारण करके पंचवटी पहुँचता है। वह कुटी के सामने आकर भिक्षा माँगने लगता है। सीता भिक्षुक समझकर लक्ष्मण रेखा लांघती है। तभी रावण अपना असली रूप दिखाता है। वह सीता का अपहरण करता है। सीता विरोध करती है, चिल्लाती है परंतु रावण के सामने सीता की एक भी नहीं चलती। वह अपने गहनों की गठरी बाँधकर नीचे फेंकती है। पापी रावण सीता को लंका ले जाता है। अशोक वाटिका में सीता को प्राप्त करने के लिए अनेक लालच दिखाता है। सीता रावण के सभी प्रस्तावों को ठुकरा देती है। क्योंकि सीता के रोम-रोम में राम समाया हुआ है। वह लंका में अनेक यातनाएँ सहती है।
एक दिन हनुमान सीता की खोज में लंका पहुँचते हैं। वह शिशपा-वाटिका (अशोक वाटिका) पहुँचकर राम की गाथाएँ गाने लगता है। हनुमान विनयभाव से सीता के सामने खड़े होकर प्रभु राम का हालचाल बताते है। श्री राम से अंकित मुद्रिका दिखाते हैं। इससे सीता खुश होती है। वह हनुमान से राम की खुशाली जानती है। वह कहती है कि यह वाटिका मेरे लिए तर्क-सी बन गयी है। वह राम को जल्दी वापस ले जाने का संदेश देती है।
रावण स्वयं अशोक वाटिका में आकर साम, दाम, दंड और भेद से सीता की राम के प्रति अटल भक्ति को खंडित करना चाहता है। अपने इन प्रयत्नों में असफल होकर वह माया के द्वारा राम का मस्तक और धनुष्य रचकर अंतिम रूप से सीता को मनोवैज्ञानिक निराशा के गर्त में डालकर तोड़ने की कोशिश करता है। वह सीता को आत्मसमर्पण के लिए विवश करने का प्रयत्न करता है। परंतु सीता के दृढ पावित्र्य से सुरक्षा के लिए तैनात राक्षस नारियाँ भी पिघल जाती हैं और सीता का हौसला बढ़ाती है। रावण के षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। वह रावण के प्रलोभनों और धमकियों से अपनी रक्षा अकेली ही करती है।
"पतिव्रत से ही मैंने
असुरों का कल्पय जीता'
दूसरे प्रसंग में महाबली हनुमान सीता को वापस ले चलने का प्रस्ताव रखते हैं। अगर सीता चाहती तो हनुमान के इस प्रस्ताव का लाभ उठा सकती थी और रावण के सारे खेल को पल भर में मिट्टी में मिला सकती थी। पहले हनुमान के इस प्रस्ताव पर विश्वास नहीं होता। वह मन ही मन विचार करती है -
फिर ये इतने लघु वानर मुझको क्या वहन करेंगे?
इनकी उत्पाती प्रकृति है,
ये क्या मदत करेंगे।
इस पर हनुमान अपना विराट रूप दिखलाते हैं। इसके पश्चात सीता उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर सकती थी। क्योंकि हनुमान राम के परमप्रिय भक्त और अनुयायी होने का प्रमाण दे चुके थे। हनुमान राम के सबसे अधिक विश्वासपात्र भी थे। इसलिए राम ने सीता का पता लगाने का बिकट कार्य हनुमान को सौंपा था। पहचान के रूप में अपनी अंगुठी दी थी। सीता इस प्रस्ताव पर बहुत सोच विचार कर प्रस्ताव को अस्वीकार करती है। क्योंकि वापस जाने का रास्ता बहुत कठिन था। पकडे जाने का डर था। इस संबंध में भी उनका मुख्य तर्क राम के प्रति उनकी पतिभक्ति ही है। क्योंकि पतिव्रता नारी का पति के अलावा किसी दूसरे के साथ जाना उचित नहीं था। चाहे वह कितनी भी बड़ी संकट में क्यों न हो -
फिर पतिव्रता नारी का पति के अतिरिक्त किसी के,संग जाना उचित नहीं था, विपरीत काल हो चाहे।
राम का कुशलक्षेम हनुमान से जानकर सीता आश्वस्त हो जाती है। धनुष्य भंग के समय उसने राम का जो रूप देखा था उससे सीता को पूरा विश्वास था कि राम उन्हें अपहरण से मुक्त करेंगे। रावण के प्रलोभनों और धमकियों की भी उसे सजा मिलनी ही चाहिए थी। यही सोचकर सीता ने हनुमान के साथ जाने शायद इनकार कर दिया। उन्होंने यहाँपर पतिव्रता का तर्क उपस्थित किया। सीता प्रमाण के रूप में 'चूडामणि हीरा' देकर वापस भेजती है। अशोक वाटिका से निकलते ही हनुमान अपने बल से लंका में आग लगा देते हैं। यह प्रसंग असुरों के लिए किसी महाप्रलय से कम नहीं था। हनुमान चूडामणि हीरा लेकर श्रीराम के पास पहुँचते हैं। सीता के बारे में सुनकर राम लंका विजय का संकल्प करके बलशाली वानर सेना लेकर किष्किन्धानगरी से निकलते हैं। राम सागरी सेतू बनाकर लंका तक पहुँचते हैं। राम सीता को वापस लाने के लिए प्रस्ताव देकर वालीपुत्र अंगद को भेजते हैं। लंकापति रावण राम के प्रस्ताव को अस्वीकार कर युद्ध के लिए ललकारता है। राम और रावण के बीच घमासान युद्ध होता है। वानर सेना अद्भुत थी। उसमें एक से बढ़कर एक वीर थे। हनुमान और अंगद ने असुरों को काफी नुकसान पहुँचाया असूर भी पूरी ताकत से लडे अनेक वीरों को अपनी जान गँवानी पड़ी। राम और मायावी रावण के बीच महाभयंकर युद्ध हुआ। राम ने रावण का वधसंहार किया। रावण के भाई बिभीषण को लंका का राजा बनाया। सीता को रावण की लंका से छुड़ाया।
रावण वध के बाद सीता की लंका के कारागृह से मुक्ति होती है। सीता खुश थी। वह अपने मन में अनेक सपने संजोएँ हुई थी। तभी उनके सामने सार्वजनिक अग्निपरीक्षा का प्रस्ताव रखा जाता है। इस प्रस्ताव से सीता
खिन्न हो जाती है। वह मन ही मन विचार करती है -
कैसे संदेह बसाया
मन में तुमने नर-पुंगव
मुझको समझा जो पतिता
था, नहीं कभी भी संभव।
वह अपने मन में राम के सामने वही तर्क उपस्थित करती है कि अनेक संकटों का सामना करने के बावजूद भी शाश्वत पतिव्रत का कवच बनाया। असुरों को मेरी प्रशंसा करने के लिए मजबूर किया। इतना सबकुछ करने
के बावजूद भी अग्निपरीक्षा का प्रस्ताव मेरे सामने रखा गया। सीता मन ही मन कहती है,
क्या महाबली मारूति ने
तुमको था नहीं बताया ?
मैंने शाश्वत पतिव्रत,
लंका में कवच बनाया।
अग्निपरीक्षा के प्रस्ताव से दुःखी हो जाती है। अपने मन की आंतरिक दृढ़ता और आत्मविश्वास के ब से अग्निपरीक्षा स्वीकार भी कर लेती हैं। क्योंकि सीता पतिव्रता एवं निष्कलुष है। वह भरी सभा में आयोजित
चिता में निर्भिक प्रविष्ट होती है,
लक्ष्मण ने भरी सभा में
आयोजन किया चिता का,
निर्भिक प्रविष्ट हुई मैं
पूजन कर अनि-पिता का।
सीता अग्निपरीक्षा में निष्कलुष साबित होती है और देवता भी उनकी पवित्रता का गायन करते हैं। लंका में अनेक कठनाईयों का सामना करनेवाली अग्निपरीक्षा के इस आकस्मिक आयोजन को स्वीकार करती है। उसे इसकी आशा नहीं थी। लेकिन लंका विजय और मुक्ति के खुशी में वे इसे भूल जाती है। उसके मन में राम के असाधारणत्व एवं महानता के प्रति संशय की भावना निर्माण होती है। सीता राम के असाधारणत्व और महानता पर प्रश्न उठाते हुए मन ही मन कहती हैं,
संशय के उस इक क्षण में
तुम साधारण बन बैठे।
सारी महानता त्यागी
जब परित्याग बैठी।
दूसरी ओर राम के चरित्र के बारे में मन ही मन सोचती है, एक आदर्श राजा होने के नाते वे मर्यादा भंग होते हुए नहीं देखना चाहते हैं। प्रजा के मन में निर्माण होनेवाले छोटी सी छोटी शंका भी उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। इसलिए राम का हर निर्णय प्रजा का निर्णय हुआ करता था। सीता मन ही मन सोचती है एक लोकराजा लोक निर्णय के सुरक्षित कवच में अपनी रूचि अरूचि, कमजोरियाँ, अपनी इच्छा आकांक्षाएँ, अपने विचार और आदर्श तो नहीं प्रकट करता? लोक निर्णय की वास्तविकता क्या है? क्या वह सचमुच प्रजा के सुविचारित इच्छा का परिणाम है? या उसके कवच भ स्वयं शासक अपनी कमजोरियों को छिपाता है। अगर ऐसा है तो लोकनिर्णय निरर्थक है। सीता अपनी मन की बात कहकर चुप-सी हो जाती है,
"लोकापवाद का भय था
या निज की वह कसमजोरी,
जो बिकट परीक्षा लेली
उस मिलन घडी में मेरी"
सीता निर्वासन का प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर सकती। क्योंकि प्रजा, सम्राट तथा परिवार का कोई भी सदस्य उनकी ओर से बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। स्वयं राम आदर्शवादी, शूरवीर, लोकहितैजी उदात्त राजा है। उनकी महानता एवं उदात्तता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। लोकादर्श उनके साथ है। लोक निर्णय का सदा सत्कार उनकी विशेषता है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। ऐसी परिस्थिति में करूण असहाय तर्कों के अलावा सीता के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं रह जाता। अतः सीता का पहला तर्क है कि, वे अग्नि-परीक्षा देकर निष्कलंक साबित हो चुकी है। दूसरा तर्क यह है कि वे गर्भवती हैं रघुकुल का उत्तराधिकारी उनके गर्भ में हैं इसलिए उनके निर्वासन पर पुनःविचार होना चाहिए। तीसरा तर्क यह है कि अगर राजा का मुख्य कर्तव्य प्रजा का हित है, तो मैं भी तो उनकी प्रजा हूँ। जाहिर है कि इन तिनों तर्कों का कोई उपयोग नहीं होता। सीता के निर्वासन का लोक निर्णय हो जाता है। लक्ष्मण रोती कलपती सीता को तमसा के किनारे छोड़ आते हैं। इस दुःख की घडी में सीता जल-समाधि लेने के बारे में सोचती है। परंतु भीतर बैठी महत्त्व की भावना इस आत्मघात से बचाती है। इसमें ऋषि वाल्मिकी भी सहाय्यता करते हैं। सीता एक साधारण स्त्री की तरह ऋषि के आश्रम में अपने जुड़वाँ पुत्रों की सेवा-शुश्रूषा में अपनी जिंदगी गुजार देना अपनी नियति समझने लगती है। वाल्मिकी लव-कुश को रामायण के गायन में पारंगत करते हैं। तभी राम के अश्वमेध यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए ऋषि वाल्मिकी को निमंत्रण आता है और वे लव-कुश के साथ अयोध्या पहुँचते हैं। पहले शत्रुघ्न से और बाद में वाल्मिकी के मुख से राम को पता चलता है कि सीता उनके आश्रम में है और लव-कुश उनके पुत्र है। राम प्रजा के सामने निष्कलंक साबित हो चुके हैं। अतः वे गुरुजनों और अन्य ऋषियों से परामर्श करके सीता को पुनः वापस लाने का अपना निर्णय वाल्मिकी को सुनाते हैं। लेकिन सीता को पुनः एक बार सार्वजनिक अग्निपरीक्षा देने की शर्त दुहराई जाती हैं। वाल्मिकी को इसमें कोई अनर्थ दिखाई नहीं देता वे चाहते हैं कि सीता का खोया हुआ अधिकार उन्हें किसी तरह पुनः वापस मिल जाए। वे अश्वमेध यज्ञ से लौटते ही राम का संदेश सीता तक पहुंचा देते हैं और अग्निपरीक्षा के स्थान तक स्वयं लेकर जाने का वचन देते हैं। लेकिन सीता के मन में राम के लोक-निर्णय के बारे में शंका थी। शंका निर्वासन के कारण और गहरी हो गयी थी। अब उन्हें लगने लगा है कि राम के मन में ही उनके चरित्र के प्रति शंका है जिसे वे लोकनिर्णय के लिबास में बार-बार प्रकट करते हैं। उनके भीतर की दुर्बलता उनपर हावी हो जाती है। जिसे वे हरबार 'लोकपवाद' का नाम देते हैं। इसलिए सीता वाल्मिकी के आश्रम में ही रहने का फैसला करती है, क्योंकि वह और अधिक लांछन और बर्दाश्त करना नहीं चाहती। उनकी इस नई और दियश निश्चितता के बावजूद वाल्मिकी फिर एक बार सीता के सामने राम द्वारा ग्रहण करने का प्रस्ताव और शर्त लेकर आते हैं। सीता के लिए यह प्रसंग अपमान की चरमसीमा है। वह दूसरी बार सार्वजनिक अग्नि-परीक्षा के लिए तैयार नहीं है। वह कहती है क्या पुरुष सदा मर्यादा पुरुषोत्तम होते है? क्या उसके लिए अपनी पवित्रता और अपना चरित्र प्रमाणित करने के लिए कोई भी शर्त नहीं है?
वाल्मिकी राम के निर्णयों के पक्ष में अपने विचार रखते हैं और पतिव्रत की दुहाई देकर सीता को शपथ ग्रहण के लिए मानसिक रूप से तैयार करते हैं। सीता मन ही मन दूसरा निर्णय लेती है। यदि उन्होंने सार्वजनिक अग्निपरीक्षा दी है तो वे अपना विरोध, अपना विद्रोह, अपने आत्मसम्मान, नारीत्व और पतिव्रत की रक्षा भी सार्वजनिक रूप से ही करेंगी। यही सोचकर वह सार्वजनिक शपथ ग्रहण के लिए तैयार हो जाती है। अंततः वह सार्वजनिक शपथ ग्रहण दुखपूर्ण घटना में बदल जाती है। जाबालि, वशिष्ठ, कात्यायन, दुर्वासा, भार्गव, वामन, काश्यप, मौदगल्य, शतानंद जैसे महामुनियों के सामने सीता अपनी विद्रोह की भावना को प्रकट करती हैं और अपनी पतिव्रता को प्रमाणित करते हुए भी अयोध्या वापस लौटने से इनकार कर देती हैं। सीता जाते पुरुष प्रधान संस्कृति के सामने दो सत्य जरूर रखकर जाती है। एक तो यह है कि इन स्थितियों में त्रासदी का शिकार हर बार स्त्री होती है। पुरुष पर समय की अपने कर्मों की मनोवैज्ञानिक मार का असर क्यों नहीं होता? दूसरा सत्य यह है कि क्या मर्यादा पुरुषोत्तम (शासक पुरूष) पति या पिता नहीं होते? क्या व्यक्तिगत निजी जीवन को खोकर ही लोककल्याण संभव है? अर्थात् क्या दोनों में कहीं कोई समन्वय की स्थिति संभव नहीं है?
क्या मर्यादा पुरुषोत्तम पति पिता नहीं होते हैं?
करते हैं हित जनपद का अपने प्रियजन खोते हैं?
अतः प्रस्तुत खंडकाव्य सीता के चरित्र के माध्यम से नारी और पुरूष के संबंधों की एक नई व्याख्या और एक नया समाधान प्रस्तुत करता है। प्रस्तुत विवेचन से स्पष्ट होता है कि, यह खंडकाव्य नारी और पुरुष के संबंधों के बारे में एक वैज्ञानिक विचारधारा का पक्षधर है। यह खंडकाव्य नारी और पुरूष के कर्तव्यों और अधिकारों में समानता का पक्ष लेता है।
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