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अकेली - मन्नू भंडारी

 (Dr Eknath Patil)

F. Y. B. A., HINDI  , Paper No -   II,  Semester - II               

अकेली -  मन्नू भंडारी 


मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल, 1931 को मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ। मन्नू जी का बचपन का नाम महेन्द्रकुमारी था। घर के लोग उन्हें प्यार से मन्नू नाम से पुकारते थें। आज वही नाम हिन्दी साहित्य जगत् में रूढ और प्रसिद्ध है। मन्नू जी की उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पूर्ण हुई। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में एक कुशल मेधावी अध्यापिका के रूप में पर्याप्त ख्याति प्राप्त की। वस्तुतः साहित्य लेखन एवं अध्ययन के संस्कार उन्हें बचपन से ही प्राप्त थे। उनके पिताजी श्री सुख सम्पतराय हिन्दी पारिभाषिक कोष के निर्माता थें। साथ ही कलकत्ता में अध्यापन करते समय ही उनका संपर्क राजेन्द्र यादव जी से हुआ। तत्पश्चात् मन्नू जी का सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव जी के साथ सन् 1959 ई. में अन्तर्जातीय विवाह हुआ। उनका इसी तरह विवाह उन दिनों परम्परा और समाज की दृष्टि से विद्रोह ही था। दोनों में साहित्यिक रूचि एवं काबिलियत होने के कारण साहित्य ही उनके बीच प्रेम का सेतु बन गया था। तत्पश्चात् मन्नू पति की प्रेरणा और सहयोग से हिन्दी साहित्य जगत् में अपना अलग स्थान, पहचान निर्माण करती है। हालांत में स्वभावगत भिन्नताएँ ही दोनों में शरीर दरारें निर्माण करती है और दोनों भी आखिरकार अलग-अलग रहने के लिए विवश हो जाते हैं।


प्रकाशित रचनाएँ -


आत्मकथा- एक कहानी यह भी।


कहानी साहित्य - मैं हार गई, तीन निगाहों की तस्वीर, यही सच है, एक प्लेट सैलाब, त्रिशंकु


उपन्यास साहित्य - एक इंच मुस्कान (सहयोगी उपन्यास), आपका बंटी, स्वामी, महाभोज


नाटक - बिना दीवारों के घर, महाभोज (नाट्य रूपान्तर) आदि।


आदि।


आदि।


मन्नू जी का लेखन नारी के अंतदूर्वव और उनकी एकाकी मनःस्थिति का व्याख्यान ही दृष्टिगत होता है। जीवन की संतुलता, टूटते रिश्तों को सामाजिक दबावों के बीच अपने अस्तित्व के लिए जुझती नारी के अन्तर्मन से अपनी कहानियों और उपन्यासों में रूपायित करती है। इस स्थिति में वह समाज की सड़ी-गली परम्पराओं पर तीखा प्रहार करती है। मन्नू जी बडी कुशलता उनकी भाषा सहज, पर प्रभावोत्पादूक है। मन्नू जी ने नारी के दुःख, व्यथा तथा उसके की त्रासदी को चित्रित किया है। अकेलेपन से


'प्रस्तुत कहानी 'अकेली' में लेखिका सोमा बुआ का अकेलापन केवल उन्हीं का अकेलापननहीं, अपितु पूरे समाज के अकेलापन को बयान करती है। सोमा बुआ का जवान बेटा जाता रहा और पति तीरथवासी हो गए। परिवार में और कोई ऐसा नहीं, जो उनके अकेलेपन को दूर कर सकता हो । सोमा बुआ अकेली रहने को विवश है। वह इस अकेलेपन को तोड़ने के लिए छटपटाती है। यहाँ तक कि, अपने मरे • बेटे की एकमात्र निशानी अंगूठी भी बेच देती है, ताकि देवर के ससुराल वालों को शादी में वह कुछ दे सकें। वह निमंत्रण आने की संभावना से जी-तोड़ बडी तैयारी करती है, पर उन्हें बुलावा नहीं आता है। आखिर अकेलेपन के जीवन के न्तर्गत सारा सामान सहेजकर अँगीठी जलाती है। सोमा बुआ एक ऐसी उपेक्षिता वृद्धा है, जो अकेलेपन से मुक्ति की तलाश में सब-के सब में सम्मिलित तो हो जाती है, पर कहीं भी जुड़ नहीं पाती है। पुत्रहीना वृद्धा धनहीन ही नहीं, बल्कि पति के यायावरी जीवन से भी समाज में मान-मर्यादा से वंचित रहती है। वह जी तोड कोशिष करती है, ताकि उसका अकेलापन दूर हो, पर वह अकेलेपन को ढोने के लिए अभिशप्त है। सोमा बुआ की परिस्थितियों से उत्पन्न अकेलेपन को तोड़ने की छटपटाहट पाठक की संवेदना को छू लेती है। उसकी सादगी ही मन-मस्तिष्क को झकझोर करती है।नहीं, अपितु पूरे समाज के अकेलापन को बयान करती है। सोमा बुआ का जवान बेटा जाता रहा और पति तीरथवासी हो गए। परिवार में और कोई ऐसा नहीं, जो उनके अकेलेपन को दूर कर सकता हो । सोमा बुआ अकेली रहने को विवश है। वह इस अकेलेपन को तोड़ने के लिए छटपटाती है। यहाँ तक कि, अपने मरे • बेटे की एकमात्र निशानी अंगूठी भी बेच देती है, ताकि देवर के ससुराल वालों को शादी में वह कुछ दे सकें। वह निमंत्रण आने की संभावना से जी-तोड़ बडी तैयारी करती है, पर उन्हें बुलावा नहीं आता है। आखिर अकेलेपन के जीवन के न्तर्गत सारा सामान सहेजकर अँगीठी जलाती है। सोमा बुआ एक ऐसी उपेक्षिता वृद्धा है, जो अकेलेपन से मुक्ति की तलाश में सब-के सब में सम्मिलित तो हो जाती है, पर कहीं भी जुड़ नहीं पाती है। पुत्रहीना वृद्धा धनहीन ही नहीं, बल्कि पति के यायावरी जीवन से भी समाज में मान-मर्यादा से वंचित रहती है। वह जी तोड कोशिष करती है, ताकि उसका अकेलापन दूर हो, पर वह अकेलेपन को ढोने के लिए अभिशप्त है। सोमा बुआ की परिस्थितियों से उत्पन्न अकेलेपन को तोड़ने की छटपटाहट पाठक की संवेदना को छू लेती है। उसकी सादगी ही मन-मस्तिष्क को झकझोर करती है।      भारतीय साहित्य में परिवार का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पुराने समय में लोग सुख-दुःख परिवार के साथ बाँटते थे पर आधुनिक काल में यह परिवार का भाव गायब हो गया है। वृद्ध नर-नारी इस समस्या को झेलते दिखायी दे रहे हैं। इस बदली हुई पारिवारिक स्थिति को मन्नू भंडारी की कहानी 'अकेली' में दिखाया गया है।        

'अकेली' मन्नू भंडारी द्वारा लिखी गयी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। इस कहानी में एक ऐसी औरत का वर्णन है जो अपने पति के होते हुए भी अकेली है। उस स्त्री का नाम सोमा है। लोग प्यार से उसे सोमा बुआ कहते हैं। इस कहानी में सोमा बुआ के मानसिक संसार का वर्णन किया गया है। उसका सोचना, अलग-अलग विषयों पर उसके के विचार, परिस्थितियों को वह किस प्रकार संभालती है ? आदि को इस कहानी में दिखाया गया है।


सोमा बुआ के इकलौते जवान बेटे हरखू की असमय मृत्यु हो गयी। मानो सोमा बुआ की जवानी चली गई। उसके पति तिरथवासी हो गए। उनके हरिद्वार चले जाने के बाद सोमा बुआ अकेली रह जाती है तथा वह अपने आप को समाज को सौंप देती है। वह सामाजिक कामों में अपना मन लगा देती है। वह सारी बिरादरी को ही अपना परिजन मानती है। उनसे जुड़कर अपने मन के घावों पर मरहम लगाती फिरती है पर कोई उससे जुड़ नहीं पाता। उसे अपनी जिंदगी पास-पडोस वालों के भरोसे ही काटनी पड़ती थी। किसी के घर मुंडन हो, छटी हो, जनेऊ हो, शादी हो या गम, बुआ वहाँ पहुँच जाती और छाती फाडकर काम करती थी। हर साल में एक महिने के लिए उसके पति आते थे और सोमा बुआ के सामाजिक कामों में रोक-टोक करते थे। पति-पत्नी को एक दूसरे के साथ और सहयोग की आवश्यकता जितनी वृद्धावस्था में होती है, उतनी शायद यौवन में नहीं पर उसी का समुचित सहवास न मिले तो वृद्धत्व अधिक खलने लगता है।


एक दिन सोमा बुआ अपने पति से कहती है कि समधी के यहाँ के किसी लड़की का विवाह भगीरथ जी के यहाँ      


    हो रहा है। सोमा बुवा पुराने रिश्ते की दुम पकडकर बुलावे की प्रतिक्षा की आस लगाए बैठती है। यहाँ तक की वह  


 सारी तैयारी में बडी उत्साह के साथ लगी रहती हैं, साडी में माड़ लगाकर सुखा देती है। शादी में देने के लिए एक नई थाली में साडी, सिंदूर-दानी, एक नारियल और थोडेसे बताशे सजाए रखती है। यह सारी तैयारी उसने अपने मरे हुए बेटे की एकमात्र निशानी, अँगूठी बेचकर की है। बुलावे की प्रतिक्षा में दिनभर वह इंतजार करती रहती है। मुहरत पाँच बजे का है, मगर इंतजार में कब सात बज गए इसका पता तक नहीं लगता। अंधेरा होने जा रहा है। राधाने सोमा बुआ को सचेत करने पर उसे सच्चाई का अहसास हो जाता है। अंत में बुलावा नहीं आया। अपने-आप को अवमानित, उपेक्षित बुढ़िया सोमा बुआ के तन-मन का उत्साह बुझ जाता है। वह अपनी चूडियाँ, थाली में सजाया सारा सामान और सारी चीजें बड़े जतन से संदूक में रख देती है और बुझे हुए दिल से अँगीठी जलाने लगती है।

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