Print Friendly and PDF e-contents Radhanagari College: चीफ की दावत -भीष्म साहनी

Sunday, 30 May 2021

चीफ की दावत -भीष्म साहनी

 (Dr. Eknath Patil)

F. Y. B. A. , HINDI  ,  Paper No - II  , Semester - II              

     चीफ की दावत  -भीष्म साहनी


भीष्म साहनी जी का जन्म सन 1915 ई. में रावलपिण्डी (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने लाहौर के सरकारी कॉलेज से अंग्रेजी विषय लेकर एम. ए. किया। देश के विभाजन के वक्त उन्होंने काँग्रेस की रिलीफ कमिटी में काम किया और सालभर तक बम्बई में भी रहें। बाद में दिल्ली के कॉलेज में बे अंग्रेजी के वरिष्ठ प्रवक्ता पद पर काम कर रहे थे। कुल साल मास्को में उन्होंने विदेशी प्रशासन गृह में अनुवादक के रूप में कार्य किया। टॉलस्टॉय, आस्त्रावस्की आदि की रचनाओं का भी उन्होंने अनुवाद किया। कुछ सालों तक 'नई कहानियाँ' नामक कहानी पत्रिका का भी संपादन किया।


प्रकाशित रचनाएँ -


कहानी संग्रह - भटकती राख, भाग्यरेखा, पहला पाठ, पटरियाँ, वाडवू आदि। उपन्यास - झरोखे, कडियाँ, तमस, तमाचे आदि।


भीष्म साहनी जी मानवीय संवेदनाओं के कलाकार रहे हैं। आपकी कथाओं में निम्न तथा मध्यवर्गीय परिवारों के अंतरंग चित्र बडे मार्मिक रूप में प्रस्तुत हुए हैं। आपकी कथाशैली की व्यंग्य, करुणा आदि विशेषताएँ रही हैं। आपकी भाषा में हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का अनूठा प्रयोग मिलता हैं।


प्रस्तुत कहानी 'चीफ की दावत' भीष्म साहनी जी के व्यंग्य और करुणा के अपूर्व सम्मिलन से श्रेष्ठतम् बन गई हैं। कहानी का नायक पंजाबी युवक मिस्टर शामनाथ के आरमान पूरे होने के बजाय वह अंग्रेजी सभ्यता में ऐसा रंग जाता है कि, उसे अपनी अनपढ, गरीब माँ गँवार लगने लगती है। पार्टी के दौरान वह अपनी माँ को कोने की कोठरी में छिपाता है। पार्टी में हिन्दुस्थानी अफसर और उनकी अधकचरी औरतें इसे हँसी-मजाक का विषय बनाती हैं, किन्तु अंग्रेजी साहब द्वारा आत्मीयता दिखाने पर मिस्टर शामनाथ को अपनी माँ प्यारी लगती है। जो कि, उसकी उन्नति में साधन बननेवाली है।


प्रस्तुत कहानी बडी तेजी से बदलती दुनिया में मनुष्य के बदलते नाते-रिश्तें का जिक्र करते पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण पर तीखा व्यंग्य कसती है। साहब की हाँ-में-हाँ मिलानेवाले देशी अफसर, उनकी अधकचरी औरतें, भारतीय संस्कृति की गरिमा को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का अधूरा अनुकरण करने की प्रवृत्ति, माता-पिता के प्रति बच्चों के बर्ताव आदि बातों को लेखक ने सबल व्यंग्य के साथ प्रकट किया है। वस्तुत: माता-पिता अपनी संतान की भलाई के लिए साक्षात् त्याग की मूर्ति होते हैं। लेखक ने कहानी में माँ के चित्रण द्वारा करुणा को मार्मिक ढंग से सफलतापूर्वक साक्षात् किया है। फलतः प्रस्तुत कहानी व्यंग्य और करुणा के अपूर्व सम्मिलन से युक्त,

पर प्रासंगिक बन गई है।


शामनाथ एक दप्तर में काम करते हैं। अपनी तरक्की के लिए चीफ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वे उन्हें अपने घर दावत पर आमंत्रित करते है। उनके चीफ एक अमेरिकन व्यक्ति है, अत: उन्हे प्रसन्न करने के लिए घर का पूरा वातावरण उसी रूप में प्रस्तुत करने के लिए शामनाथ और उनकी पत्नी निरंतर लगे हुए हैं। कहाँ, कब, कैसे, क्या रखना, लगाना, सजाना है, इसी तैयारी में पूरा समय व्यतित हो रहा था पर अचानक माँ का ध्यान आ गया। माँ का ध्यान आते ही दोनों पति-पत्नी बेचैन हो उठते हैं। माँ बूढी हो गयी है, अत: चीफ के सम्मुख उनका होना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा। दोनों विचार करते हैं कि माँ को कहाँ भेज दिया जाये? कभी कोठरी में, कभी बरामदे में तो कभी उनकी सहेली के पास भेजे जाने का प्रस्ताव एक-एक करके नकारे जाते हैं। अंतत: निश्चय किया जाता है कि माँ बेटे के पसंद के कपड़े पहनकर, जल्द ही खाना खाकर अपनी कोठरी में चली जायें और साथ ही ध्यान रखें कि वे सोयें नहीं क्योंकि उनकी खर्राटे लेने की आदत है।


डरी सहमी माँ बेटे की हर बात को सिर झुकाकर स्वीकार करती है। वह गाँव में रहनेवाली एक अनपढ़ और है जो प्रत्येक स्थिति में बेटे का ही भला चाहती है। शर्मिली, लजीली, धार्मिक विचारों वाली माँ को कुर्सी पर ढंग से बैठने का तरीका भी सिखाया जाता है, क्योंकि अगर कहीं गलती से साहब का माँ से सामना हो जाये तो शामनाथ को शर्मिन्दा न होना पड़े।


साहब और उनके सभी साथी लगभग आठ बजे तक पहुँच गए। विस्की का दौर चलने लगा। दफ्तर में रौब रखने वाले साहब यहाँ पूरी तरह से मुक्त व्यवहार कर रहे थे। पीना पिलाना समाप्त होने पर सभी खाना खाने के लिए बैठक से बाहर जा रहे थे कि अचानक सामने कुर्सी पर बैठी, सोती हुई माँ सामने पड गई। माँ पर बेटे को बहुत क्रोध आया पर मेहमानों के सामने कुछ भी नहीं कह पा रहे थे। शामनाथ साहब के लिए परेशान थे पर साहब तो अलग  प्रवृत्ति के व्यक्ति निकले। उन्होंने माँ से हाथ मिलाया गाना सुना विदेशी साहब के इस उन्मुक्त व्यवहार के कारण देसी साहब भी माँ को उसी दृष्टि से देखने लगे पर माँ लज्जा के कारण अपने में सिमटती जा रही थी। साहब के कहने पर उन्होंने एक पुरानी फुलकारी भी लाकर दिखाई। माँ के इस कार्य से प्रसन्न साहब चाहते है कि माँ उनके लिए एक नई फुलकारी बनाकर दें। हिचकिचाते हुए माँ उनके इस अनुरोध को स्वीकार करती है। बेटे की तरक्की का प्रश्न है इसलिए आँखों की रोशनी कम होने पर भी इसके लिए प्रयत्नशील होने का वायदा करती है। वे तो सब कुछ छोड़कर हरिद्वार जाना चाहती थी, पर इस परिस्थिति में उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा। इसके बाद शामनाथ निश्चिंत होकर पत्नी के साथ अपने कमरे में चले गए और माँ भी चुपचाप अपनी कोठरी में लौट गई।


कथानक की दृष्टि से यह कहानी प्रेमचंद परंपरा का ही विकास है। कहानी प्रायः अनुभूति का अभिव्यक्तिकरण होती है। 'चीफ की दावत' में घटना छोटी-सी है गहराई से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि घटना का विकासक्रम अत्यंत स्वाभाविक है। चीफ का माँ को देखना लजा का नहीं गौरव का विषय बन गया और वहाँ से घटना ने अप्रत्याशित मोड लिया पर कहानी अभी और भी है। दावत के बाद शामनाथ का माँ के पास आना-कथानक की दूसरी विशेषता है। पहली विडंबना है माँ का फालतू सामान होना। दूसरी है पुत्र की उन्नति के लिए हरिद्वार जाने की इच्छा की बली देकर फुलकारी बनाने के लिए तैयार होना। जो माँ आत्मग्लानि बश अपने कमरे फूट-फूटकर रोती है, वहीं पुत्र की तरक्की की बात सुनकर खिल उठती है। माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।

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