Print Friendly and PDF e-contents Radhanagari College: आलोचना स्वरूप और परिभाषा

Monday, 21 June 2021

आलोचना स्वरूप और परिभाषा

 (Eknath Patil)

T. Y. B. A. ,  HINDI  , paper no - 13 , semester - 06     आलोचना स्वरूप और परिभाषा   - आलोचना के अर्थ को व्यक्त करने के लिए हिंदी में कई शब्द प्रचलित हैं। इनमे आलोचना, समालोचना और समीक्षा विशेष प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त विवेचना शब्द भी इनका पर्यायवाची हैं। आलोचना का सामान्य अर्थ किसी वस्तु या व्यक्ति के दोषों की चर्चा करना है, किंतु साहित्य के क्षेत्र में इसे थोडे भिन्न एवं व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाता है । आलोचना शब्द 'लोच' धातु में 'आ' उपसर्ग लगने से बना है। 'लोच' का अर्थ है 'देखना' । अत: व्युत्पत्तिपरक दृष्टि से आलोचना का अर्थ हुआ - 'किसी वस्तु या कृति को सम्यक रूप से देखना या उसका मूल्यांकन करना ।' साहित्य में किसी भी साहित्यिक रचना के विवचेन-विश्लेषण, गुण-दोष दिग्दर्शन या नियम के प्रतिपादन तथा उसकी ऐतिहासिक, सामाजिक या मनोवैज्ञानिक व्याख्या को आलोचना के अंतर्गत स्थान दिया जाता है। किंतु कुछ लोग इस शब्द का अर्थ केवल दोष दिखाना ही समझते हैं। इसी दोष के निराकरण के लिए 'आलोचना शब्द में 'सम' उपसर्ग जोड़ा जाने लगा, जिससे 'समालोचना' शब्द बना। इसका अर्थ है - संतुलित दृष्टि से किसी रचना के गुण दोषों का विवेचन। 'समीक्षा' शब्द में भी गुण-दोषों के प्रति समान दृष्टि की अपेक्षा हैं। इस प्रकार शब्दगत अर्थ की दृष्टि से आलोचना की अपेक्षा समालोचना अथवा समीक्षा शब्द अधिक उपयुक्त हैं। किंतु अब तीनों शब्द सामान्यतया समान अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं।साहित्य या काव्य का सूक्ष्म अध्ययन करके निष्पक्ष दृष्टि से उसके गुण-दोषों का कथन करना 'आलोचना' कहलाता है। लेकिन कुछ लोग रचनात्मक साहित्य के अतिरिक्त साहित्य से संबंधित अन्य समस्त बातों को आलोचना का हिस्सा समझते हैं। वे साहित्यानुसंधान, काव्य का इतिहास और काव्यशास्त्र एवं काव्य-सिद्धांतों को भी आलोचना के अंतर्गत सम्मिलित करते हैं। परंतु यह मत गलत और भ्रांतिपूर्ण है। आलोचना का स्वरूप इन तीनों से भिन्न है, जिसे हम निम्न पंक्तियों में स्पष्ट करेंगे ।अनुसंधान और आलोचना .


अनुसंधान का प्रमुख कार्य अज्ञात तथ्यों की खोज अथवा ज्ञात तथ्यों की नवीन व्याख्या है। जब तक तथ्यों या दृष्टिकोण संबंधी नवीनता न हो, तब तक उसे अनुसंधान की कोटि में नहीं रखा जा सकता। परंतु आलोचना का कार्य किन्हीं मानदंडों के आधार पर विशेषताएं बताना, व्याख्या करना अथवा मूल्यांकन करना है । अत: अनुसंधान की समस्य कृतियाँ आलोचना नहीं हो सकती और न ही आलोचना की समस्त कृतियाँ अनुसंधान हो सकती हैं।


इतिहास और आलोचना


साहित्येतिहास और आलोचना भी एक नहीं है। इन दोनों की प्रक्रियाओं में भिन्नता है । इतिहास का प्रमुख ध्येय कालक्रम में लेखक और कृति की व्यवस्था और उसका स्थूल परिचय है। इसके विपरीत आलोचना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का ध्यान रखती हुई लेखक के महत्त्व का प्रकाशन, कृति की मूल्यांकन संबंधी विवेचना, कृति की व्याख्या और उसकी विशेषताओं का स्पष्टीकरण करती हैं। ऐतिहासिक आलोचना इतिहास की पृष्ठभूमि ग्रहण करती है, पर वह इतिहास नहीं है। इतिहास तथ्यों के अनुसंधान के अनुसार अपनी व्यवस्था और मान्यताओं में परिवर्तन और संशोधन करता रहता है; अत: आलोचना से अधिक उसका संबंध अनुसंधान से है।


काव्यशास्त्र और आलोचना


काव्यशास्त्र और काव्य-सिद्धांत को भी कुछ लोगों ने आलोचना का एक रूप माना है। परंतु दोनों में अंतर है। काव्यशास्त्र या काव्य-सिद्धांत समस्त काव्य में व्याप्त उसके स्वभाव, सौंदर्य, प्रक्रिया, प्रभाव आदि से संबंधित नियमों और सिद्धांतों का विश्लेषण और विवेचन करता है, तो आलोचना उन सिद्धांतों और नियमों को मानदंड या कसौटी के रूप में स्वीकार करती है। आलोचना निराकार नियमों और सिद्धांतों की खोज नहीं करती, बल्कि कवि की कृति की व्याख्या या मूल्यांकन करती है।


आलोचना की परिभाषा


आलोचना के स्वरूप को स्पष्ट करने की कोशिश अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने की है। उनमें


से कुछ प्रमुख मत इसप्रकार हैं। -


* एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका


"Criticism is the art of judging the qualities and values of an aesthetic object whether in literature or the fine arts. It involves the formation and expression of judgement.'' अर्थात् आलोचना का अर्थ वस्तुओं के गुण-दोषों की परख करना है, चाहे वह परख साहित्य क्षेत्र में की गई हो या ललित कला क्षेत्र में इसका स्वरूप निर्णय में सन्निहित रहता है।आई. ए. रिचर्ड्स.


रिचर्ड्स ने भी आलोचना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए मूल्य निर्धारण को ही उसकी प्रमुख विशेषता स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है- "To set up as a critic is to set up as a judge of values." अर्थात् आलोचक की नियुक्ति करना निर्णायक की नियुक्ति करना है।


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Eknath Patil, [17.06.21 12:14]

कार्लाइल प्रभावशाली समीक्षा के समर्थक थे। उन्होंने आलोचना की परिभाषा देते हुए लिखा है "Literary criticism is nothing and should be nothing but the recital of one's personal adventures with a book." अर्थात् आलोचना पुस्तक के प्रति उद्भूत आलोचक की मानसिक प्रतिक्रिया का परिणाम है।


* •एडिसन - -


इन्होंने आलोचना का अर्थ छिद्रान्वेषण न लेकर सौंदर्योद्घाटन ही लिया है। उनका कथन है - "समालोचक का धर्म कलाकारों के दोष निकालना नहीं है, बल्कि उसका कर्तव्य है, उनकी कृतियों का सौंदर्योद्घाटन करना।"


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कॉलरिज -


एडिसन से मिलता-जुलता ही दृष्टिकोण कॉलरिज साहब का है। उन्होंने लिखा है - "समीक्षा का उद्देश्य साहित्य-निर्माण के नियमों का निश्चितीकरण है, न कि निर्णयात्मक नियमों का संकलन तैयार करना।'


* ब्रयेन्तर


ब्रयेन्तर ने भी आलोचना में निर्णय की प्रधानता स्वीकार कर उसके उद्देश्य के बारे में लिखा है- "इसका प्रमुख उद्देश्य जनता तथा लेखकों की अभिरूचि का संशोधन एवं कला और साहित्य का श्रेष्ठ निर्देशन है।"


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वर्सफिल्ड


“आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापना है।"


डॉ. गुलाबराय


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“आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टिकोणों से आस्वाद कर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उसकी रूचि को परिमार्जित करना एवं साहित्य की गतिविधि निर्धारित करने में योग देना है।"डॉ. श्यामसुंदरदास


"किसी ग्रंथ को पढ़कर उसके गुण-दोषों का विवेचन करना और उस पर अपना मत स्थिर करना आलोचना कहलाता है। यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या माने तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"


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डॉ. सीताराम चतुर्वेदी -


"समीक्षा वह तात्त्विक प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य कुछ दर्शनीय पदार्थ देखने की इच्छा करे और देख चुकने पर उसमें जो द्रष्टव्य है, उसे दूसरों को भी दिखा दे।"


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डॉ. गोविंद त्रिगुणायत


“सच्ची समालोचना वह है, जिसमें आलोचक इतिहास एवं तुलना का आधार लेकर वस्तु के बाह्य और अंतर दोनों पक्षों की व्याख्या वैज्ञानिक शैली में करता हुआ सिद्धांतों का निर्माण और आलोच्य वस्तु का मूल्यांकन करने का प्रयास करता है।"


आलोचना संबंधी उपर्युक्त परिभाषाओं का यदि ध्यान से अध्ययन करें, तो हमें स्पष्ट अनुभव होगा कि विद्वानों ने आलोचना संबंधी अपने-अपने दृष्टिकोणों के अनुरूप ही उसके स्वरूप की व्याख्या की है। कोई निर्णय को, कोई व्याख्या को, कोई वैज्ञानिक विवेचन को, कोई मनोवैज्ञानिक अध्ययन को तथा कोई सिद्धांत निर्माण को आलोचना का आवश्यक अंग मानता है। वास्तव में ये सभी मत एकांगी हैं। हमारे दृष्टिकोण से आलोचना में तीन बातें मुख्य हैं- (1) अर्थ का स्पष्टीकरण, (2) विषय का वर्गीकरण तथा (3) निर्णय की प्रधानता। आलोचना का उद्देश्य लेखक और पाठक की रूचि का परिष्कार करना है।


आलोचना के संबंध में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मानदंड अलग-अलग हैं। भारतीय विद्वानों ने अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, रस आदि काव्यालोचन के मानदंड प्रस्तुत किए हैं; तो पाश्चात्य विद्वानों ने बिंबवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद आदि । भारतीय आलोचना दृष्टि और पाश्चात्य आलोचना दृष्टि में अंतर होते हुए भी तात्त्विक अंतर नगण्य हैं। फिर भी हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि पाश्चात्य दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण से अधिक व्यापक है। जहाँ भारतीय आलोचना हमें एकांगी दिखाई देती है, वहां पाश्चात्य आलोचना सर्वांगपूर्ण है। संभवतः यही कारण है कि आधुनिक भारतीय समीक्षक किसी एक शैली का स्वीकार न कर, दोनों के समन्वित रूप को अपनी आलोचना का आधार बनाते हैं।

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