Eknath Patil, [20.06.21 12:00]
T. Y. B. A. , HINDI , paper no - 13 , semester - 06 . साहित्यशास्त्र , आलोचक के गुण
आलोचक का उत्तरदायित्व तिहरा होता है। एक कवि या लेखक के प्रति, दूसरे कृति के प्रति और तीसरे समाज के प्रति । इन तीनों ही प्रकार के उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए आलोचक में कुछ गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है । आलोचक के गुणों पर विचार करने से जो गुण ज्ञात होते हैं, उनमें भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों दद्वारा समन्वित प्रमुख गुण इस प्रकार हैं
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सहृदयता
सहृदयता आलोचक का आवश्यक गुण है। क्योंकि भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार कोई भी व्यक्ति बिना सहृदय हुए काव्य का रसास्वादन नहीं कर सकता। सहृदय होने से ही वह कृति का सही विवेचन कर सकता है। मुक्त हृदय से काव्य-कृति में तन्मय होकर, गुणों पर रीझता हुआ जो आलोचक अपनी आलोचना प्रस्तुत कर सके, वह सहृदय आलोचक है। आलोचक के मन में रचनाकार तथा रचना के प्रति श्रद्धा, सहानुभूति तथा आदर की भावना होनी चाहिए।
विस्तृत ज्ञान -
यदि आलोचक को आलोच्य विषय तथा लोक और शास्त्र का व्यापक एवं सूक्ष्म ज्ञान न होगा, तो वह वर्ण्य विषय की बारीकियों को समझ ही न पाएगा; उसमें गुण-दोष निकालना तो दूर की बात है। आलोचक का इतिहास, दर्शन, काव्यशास्त्र, समाजशास्त्र आदि का विस्तृत ज्ञान ही उसे आलोचना की विविध भूमियाँ प्रदान कर सकता है और कृति की विशेषताओं का विवेचन करने में सहायक हो सकता है। अत: विषय का सांगोपांग विवेचन करने के लिए समालोचक का ज्ञान विस्तृत होना आवश्यक है।
निष्पक्षता
सहृदयता के साथ-साथ निष्पक्षता के मेल के बिना आलोचक किसी कृति की आलोचना में न्याय नहीं कर सकता। परिचितों और आत्मीयों की कृतियों में उसे गुण ही गुण दिखलाई देंगे और अन्यों की कृतियों में दोषअधिक और गुण कम। आलोचक को न्यायाधीश के समान नीर-क्षीर विवेकी होना आवश्यक है। आलोचक का यह गुण उसकी सूक्ष्म बुद्धि और चरित्र दोनों से ही संबंध रखता है। पाश्चात्य समालोचनाशास्त्र में आलोचक के इस गुण को बहुत महत्त्व दिया गया है।
* स्वाभाविक प्रतिभा -
स्वाभाविक प्रतिभा के अभाव में कोई भी आलोचक आलोचना क्षेत्र में कभी भी सफल नहीं हो सकता। स्वाभाविक प्रतिभा के बल पर ही एक आलोचक अपने कथन, निर्णय या मत को सामर्थ्यपूर्ण और प्रभावोत्पादक बना सकता है । इसी कारण हमारे यहाँ काव्योत्पादन और काव्यालोचन दोनों में प्रतिभा को बहुत महत्त्व दिया गया है। हमारे यहाँ प्रतिभा के दो भेद माने गए हैं- कारयत्री और भावयत्री। कारयत्री प्रतिभा का संबंध कवि से होता हैं और भावयत्री प्रतिभा का संबंध भावक या आलोचक से होता है।
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अन्तर्दृष्टि
आलोचक में अन्तर्दृष्टि का होना बहुत जरूरी होता है। अन्तर्दृष्टि की विशेषता बहुत कुछ जन्मजात कहीं जा सकती है। किंतु शिक्षा और अभ्यास आदि से आलोचक की यह विशेषता विकसित हो सकती है। आलोचक अपनी इसी विशेषता के कारण सच्ची आलोचना में समर्थ हो सकता है; क्योंकि आलोचक का कर्तव्य है कि कवि के द्वारा की गई जीवनाभिव्यक्ति को पाठक तक पहुँचा देना। आलोचक का यह लक्ष्य तभी पूर्ण हो सकता है, जब उसमें सूक्ष्म अंतर्दृष्टि हो। हडसन तथा फेलेट ने आलोचक के इस गुण को काफी महत्त्व किया है। शिक्षा और कवित्व शक्ति
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आलोचक को भी कवि के समान शिक्षित होना चाहिए। स्कॉट जेम्स के मतानुसार आलोचक को उसी भूमिका तक पहुँचने की चेष्टा करनी चाहिए, जिस भूमिका पर कवि रहता है। यह तभी हो सकता है, जबकि आलोचक भी कवि के समान शिक्षित हो। हडसन ने भी आलोचक के शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा पर जोर दिया है।
अनेक विचारकों ने यह भी माना है कि समालोचक में भी कवि की तरह कवित्व शक्ति होनी चाहिए। बेन जॉनसन ने तो यहाँ तक कहा है कि, "कवियों की आलोचना केवल कवि ही कर सकते हैं; केवल वे ही कवि, जो काव्य-रचना में श्रेष्ठ समझे जाते हैं।"
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वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का होना
आज की आलोचना के ये आवश्यक उपादान है। पाश्चात्य आलोचना शास्त्र में इनके ऊपर विशेष जोर दिया गया है। वैज्ञानिकता का अर्थ है, वस्तुओं का निष्पक्ष भाव से विश्लेषण । इस प्रकार का विश्लेषण तभी हो सकता है, जब आलोचक स्वभावत: वैज्ञानिक हो। वैज्ञानिकता के साथ-साथ पात्रों के अन्तर्द्वद्व से परिचित होने के लिए आलोचक में मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का होना भी नितांत आवश्यक है। साहित्य मानव जीवन की अभिव्यक्ति है और आलोचक का कार्य उस साहित्य का मूल्यांकन करना होता है। अतः उसे मानव-मनोविज्ञान का अच्छाअच्छा ज्ञान हो. कवि और उसके काव्य के विषय में पूर्ण ज्ञान -
Eknath Patil, [20.06.21 12:00]
समालोचक का विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह कवि और उसके काव्य के विषय में सभी कुछ जानता हो। तभी वह आलोच्य कृति की सही आलोचना कर सकता है। समालोचक को अपने सिद्धांतों के आधार पर कृति की समालोचना करने के स्थान पर, आलोच्य कृति के कृतिकार की रूचि तथा परिस्थितियों के आधार पर करनी चाहिए। अतः उनका ज्ञान समालोचक का विशेष गुण है।
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कृतिकार के साथ तादात्म्य -
समालोचक का एक गुण यह भी है कि वह समालोचना करते समय स्वयं को भी उन्हीं परिस्थितियों में अनुभव करे, जिनमें आलोच्य कृतिकार रहा हो। इस तादात्म्य से कृति की गहराई से समालोचना हो सकती है।
* प्रेषण की क्षमता -
आलोचक में अपनी सहानुभूति को दूसरों तक प्रेषित करने की क्षमता होनी अपेक्षित है। उसका कार्य केवल यह नहीं है कि वह स्वयं किसी कलाकृति का आनंद ले; अपितु उस आनंद को पाठकों तक प्रेषित करे। इस संबंध में हेलन गार्डनर ने कहा है, "एक अच्छे आलोचक में अच्छी एवं बुरी कविता का भेद करने की क्षमता का होना उतना आवश्यक नहीं, जितना कि उसके अभिप्रेत सौंदर्य को सहज एवं ग्राह्य शब्दावली में प्रस्तुत करना ।”
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निर्णयात्मक शक्ति -
आलोचक का कर्म निर्णय प्रधान होता है। अतः उसका यह सर्वोपरि गुण है कि वह स्पष्ट और सही निर्णय ले सके। सही विषय-बोध, अपने व्यक्तित्व की सशक्तता एवं अभिव्यक्ति की स्पष्टता से ही समालोचक सही निर्णय ले सकता है।
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अभिव्यक्ति कौशल
यदि समालोचक में अभिव्यक्ति कौशल नहीं है, तो समालोचना स्वयं में प्रभावहीन हो जाएगी। जब समालोचना ही नीरस और प्रभावहीन होगी, तो वह जो निर्णय देगी, उसका पाठकों पर प्रभाव ही क्या पड़ेगा? अतः समालोचक के किए यह भी आवश्यक है कि उसकी अभिव्यक्ति सक्षम हो।
सहानुभूती सहानुभूति आलोचक का आवश्यक गुण है। लौंगफेलो ने इस बात का समर्थन किया है। हमारे यहाँ भी इस तथ्य का समर्थन दूसरे ढंग से किया गया है। किसी ने ठीक ही कहा है - "शिवजी की भाँति बुधजन गुण और अवगुण दोनों ग्रहण करते हैं; किंतु चंद्रमा की भाँति गुणों को सिर पर रख प्रकाशित करते हैं और दोषों को विष की भाँति गले के भीतर ही रखते हैं।" इस लक्ष्य तक आलोचक तभी पहुंच सकता है, जब उसमें सहानुभूति का विशेष गुण हो । औचित्य ज्ञान
आलोचक को किसी रचना के गुण-दोषों के विवेचन में औचित्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हमारे यहाँ तो औचित्य को बहुत महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार का औचित्य-ज्ञान उसी समालोचक में हो सकता है, जो सत्यप्रिय और ईमानदार है, जिसमें धीरता और स्थिरता आदि स्वाभाविक गुण हैं, तथा जो स्वभाव से गंभीर है।
छिद्रान्वेषी प्रकृति का निराकरण
यद्यपि काव्य की समालोचना के लिए जब समालोचक प्रवृत्त होता है, उस समय सम्यक विवेचना के लिए गुणों के साथ-साथ दोषों को भी प्रदर्शित करता है; पर इसमें सुधार भावना होनी चाहिए, न कि छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति । टी. राइमर ने कहा है - "किसी श्रेष्ठ कलाकार के दोषों का प्रदर्शन और गुणों पर परदा डालना अच्छे आलोचक का गुण नहीं है। "
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व्यक्तित्व -
आलोचक का व्यक्तित्व विशिष्ट होना चाहिए। व्यक्तित्व प्राय: दो प्रकार के होते हैं - दूसरों से प्रभावित होने वाले और दूसरों को प्रभावित करने वाले। आलोचक का व्यक्तित्व वास्तव में इन दोनों की मध्य कोटि का होना चाहिए । उसका दृष्टिकोण विस्तृत हो, स्वभाव गंभीर हो, विचार उदात्त हो, साथ-साथ सहानुभूति भी हो ।
इन महत्त्वपूर्ण गुणों के अतिरिक्त आलोचक में गुण-ग्राहकता, परिमार्जित एवं परिष्कृत रूचि, साहस, गर्वहीनता, भाषा पर अधिकार, विभिन्न शैलियों का ज्ञान, विश्लेषणात्मक बुद्धि, दार्शनिक वृत्ति आदि अनेक गुणों का होना आवश्यक है । कुछ गुण पाठक से सम्बद्ध हैं, कुछ कवि से तथा कुछ समालोचक से और इन सबके होने से ही समालोचना आदर्श बनती है।
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