(E. S. Patil)
T. Y. B. A. ,HINDI , paper no - 16 , semester - 06
भाषाविज्ञान का अन्य ज्ञान-विज्ञान से संबंध
•भाषाविज्ञान का ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं से नजदीकी संबंध होता है। एक की जानकारी के बिना दूसरे का अध्ययन प्राय: असंभव होता है। अत: इन संबंधों को स्पष्ट करने के लिए हमारे पाठ्यक्रम के अनुसार कुछ प्रमुख संबंध को स्पष्ट किया जा रहा है।
1) भाषाविज्ञान और साहित्य
भाषाविज्ञान और साहित्य का घनिष्ठ संबंध है। भाषाविज्ञान साहित्य के बिना अधूरा है और साहित्य भाषाविज्ञान के बिना अधूरा है । भाषाविज्ञान और साहित्य दोनों में भाषा तत्त्व महत्त्वपूर्ण है। 'भाषा' भाषाविज्ञान का साध्य है, तो साहित्य के लिए 'अभिव्यक्ति' । साहित्य भाषाविज्ञान के लिए सामग्री संकलन करने का कार्य करता है । भाषा के तुलनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन में साहित्य की सहायता लेनी पड़ती है। उदाहरण के लिए साहित्य से ही यह पता चलता है कि किस तरह संस्कृत से पालि, पालि से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से हिंदी की उत्पत्ति हुई और खड़ी बोली, ब्रज, अवधी, बघेली, छत्तीस गढ़ी, भोजपुरी आदि बोलियों का प्रादुर्भाव हुआ तथा खड़ी बोली उत्तरोत्तर विकसित होकर राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचलित हुई। लैटिन, ग्रीक, संस्कृत, जर्मन, ईरानी, अवेस्ता आदि भाषाओं के प्राचीन साहित्य के आधार पर ही भाषाविज्ञान यह कहता है कि इन भाषाओं का मूल स्त्रोत एक है तथा ये सभी एक परिवार की भाषाएँ हैं।
जीवित भाषाओं के अध्ययन को छोडकर पुरानी या मृत भाषा का, भाषाविज्ञान चाहे जिस रूप में अध्ययन करना चाहे, उसे बार-बार साहित्य का आश्रय तो लेना ही पड़ेगा। साथ में जीवित भाषा के संबंध में भी 'क्यों', 'कब', 'कैसे' इत्यादि के उत्तर के लिए भाषाविज्ञान को साहित्य का सहारा लेना पड़ेगा।
ध्वनि परिवर्तनों एवं रूप परिवर्तनों को जानने के लिए भी साहित्य भाषाविज्ञान को पर्याप्त सामग्री प्रदान
करता है। अर्थ - परिवर्तन के सम्यक् अध्ययन के लिए भाषाविज्ञान को साहित्य की ही मदद लेनी पड़ती है। जैसे
साहित्य द्वारा ही इस बात का पता लगाया जाता है कि कैसे 'असुर' शब्द पहले देवताओं के लिए प्रयुक्त - किया जाता था । इसी तरह कैसे ‘स्वर्गवास' शब्द देवताओं के निवास के अर्थ को छोड़कर 'मृत्यु' का पर्याय हो गया?
दूसरी ओर साहित्य भी भाषाविज्ञान से विपुल सहायता लेता है। भाषाविज्ञान साहित्य के क्लिष्ट अर्थों एवं विचित्र प्रयोगों तथा उच्चारण संबंधी समस्याओं पर प्रकाश डालता है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर जायसी कृत 'पद्मावत' के बहुत से शब्दों को उनके मूल रूपों से जोड़कर उनके अर्थों को स्पष्ट किया है । साथ ही शुद्ध पाठ के निर्धारण में भी इससे पर्याप्त सहायता ली है। इस प्रकार भाषाविज्ञान और साहित्य एक-दूसरे के सहायक हैं।
2) भाषाविज्ञान और व्याकरण -
व्याकरण शब्द 'वि' और 'आकरण' के योग से बना है। व्याकरण शब्द का अर्थ है, 'टुकडे करना' । यहाँ शब्दों के टुकड़े-टुकड़े करके उसके ठीक स्वरूप को बनाना व्याकरण का काम है। व्याकरण और भाषाविज्ञान मेंबहुत घनिष्ठ संबंध है। इसी घनिष्ठ संबंध के कारण दोनों को एक या भाषाविज्ञान को व्याकरण, या व्याकरण को .भाषाविज्ञान मानने का भ्रम लोगों में हो जाता है। इन दोनों में अंतर स्पष्ट है -
भाषाविज्ञान व्याख्यात्मक विषय है, जबकि व्याकरण वर्णनात्मक व्याकरण के द्वारा ही कोई व्यक्ति किसी भाषा का शुद्ध एवं ठीक उच्चारण कर उसे व्यवहार में ला सकता है। किसी भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों को बताने का कार्य व्याकरण करता है। इसके विपरीत भाषाविज्ञान, विज्ञान होने के कारण इस बात को जानना चाहता है कि कब, कहाँ, कैसा प्रयोग होता है।
जहाँ तक संबंधों का प्रश्न है, भाषा के अध्ययन में दोनों अन्योन्याश्रित हैं। बिना भाषाविज्ञान की जानकारी से अच्छा व्याकरण नहीं लिखा जा सकता और दूसरी ओर भाषाओं के विश्लेषण में भाषाविज्ञान व्याकरण से पर्याप्त सामग्री और सहायता लेता है।
व्याकरण जीवित भाषा का रूप है। भाषा के परिवर्तन को समझने की क्रिया भाषाविज्ञान करता है और व्याकरण उन्हें संभाल लेता है। उदा. व्याकरण यह बतलाता है कि 'जा' का भूतकाल रूप 'गया' होता है। लेकिन यह कहाँ से आया यह भाषाविज्ञान बताता है।
भाषा की साधुता या असाधुता बताने का कार्य व्याकरण करता है। इस दृष्टि से व्याकरण भाषाविज्ञान का अनुगामी है। भाषाविज्ञान नए रूपों का सहज समावेश कर सकता है, लेकिन व्याकरण नहीं। इसलिए व्याकरण पुराणमतवादी है, जबकि भाषाविज्ञान प्रगतिवादी है।
भाषाविज्ञान का कार्य वैज्ञानिक है, तो व्याकरण का कलात्मक व्याकरण का क्षेत्र अत्यंत संकुचित है, जबकि भाषाविज्ञान का क्षेत्र अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत है। भाषाविज्ञान और व्याकरण में निम्न भेद हैं. -
1) व्याकरण कला है तो भाषाविज्ञान विज्ञान है।
2) व्याकरण का क्षेत्र सीमित है तो भाषाविज्ञान गहराई, व्यापकता से भरा हुआ है।
3) व्याकरण भाषा के विशिष्ट नियमों को सामने रखता है इसलिए वह वर्णनात्मक है, तो भाषाविज्ञान व्याख्यात्मक है।
4) व्याकरण का कार्य नियम-निर्धारण है, तो भाषाविज्ञान का कार्य भाषा परिमार्जन है।
5) व्याकरण भाषाविज्ञान का अनुगामी है।
6) व्याकरण पुराणमतवादी है, तो भाषाविज्ञान प्रगतिवादी है।
7) भाषाविज्ञान भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन है, तो व्याकरण भाषा की रचना स्पष्ट करता है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि भाषाविज्ञान और व्याकरण का पारस्परिक अत्यंत निकटतम (घनिष्ठ) संबंध है।
3) भाषाविज्ञान और समाजविज्ञान
मानव एक सामाजिक प्राणी है । भाषा विचार-विनिमय का सर्वोत्तम साधन है। भाषा आद्यन्त सामाजिकवस्तु है। मनुष्य अपनी भावनाओं, विचारों का आदान-प्रदान भाषा द्वारा करता है। भाषा समाज का दर्पण है और समाज भाषा का अनुचर है । भाषा समाज में ही उत्पन्न होती है और समाज में ही विकसित होती है।" समाज के उत्थान एवं पतन, उन्नति एवं अवनति, असभ्यावस्था एवं सभ्यावस्था आदि का सांगोपांग विवरण समाज विज्ञान में रहता है। भाषा एक सामाजिक संपत्ति है। अत: सामाजिक उत्थान-पतन के साथ-साथ
भाषा का भी उत्थान-पतन होता रहता है, क्योंकि समाज जैसे-जैसे सभ्यता के उत्तरोत्तर विकास के सोपानों पर
चढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उनकी भाषा भी विकास की ओर अग्रसर होती है और उसकी ध्वनियों रूपों एवं अर्थों में
भी विकास एवं परिवर्तन के दर्शन होते हैं। इसी भाषा विकास को प्रथम वैदिक संस्कृत, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश,
ब्रज, अवधी, खड़ीबोली आदि में क्रमश: देखा जा सकता है। समाजशास्त्र के अध्ययन से ही भाषाविज्ञान की उन अवस्थाओं का पता चलता है, जिसमें भाषा का विकास होता है। समाजशास्त्र के किन प्रभावों से 'साँप' को कीडा और 'लाश' को मिट्टी कहते हैं? क्यों गाय 'बियाती' है, स्त्री नहीं? इन सब बातों का उत्तर समाजशास्त्र के सूक्ष्म अध्ययन से ही मिल सकता है।
समाज विज्ञान केवल सामाजिक विकास का ही बोध नहीं कराता, अपितु अन्य समाजों के प्रभाव से उत्पन्न सामाजिक रीति-नीति, आचार-विचार, बोलचाल, व्यवहार आदि का विवरण भी प्रस्तुत करता है। वह यह भी बतलाता है कि किस तरह एक विजयी एवं प्रगतिशील समाज की भाषा में प्रचलित शब्द दूसरी पराजित परतंत्र समाज की भाषा पर अपना प्रभाव डाला करते हैं और वह समाज उन्हें किस तरह सहर्ष अपनाने में गौरव का अनुभव करता है। जैसे हिंदी क्षेत्र में पहले माता-पिता, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मौसा-मौसी, भाई-बहन आदि शब्द परिवार में बोले जाते थे, किंतु मुस्लिम समाज के संपर्क में आते ही वालिद अम्मीजान, मियाँ-बीबी आदि शब्द प्रचलित हुए और फिर अंग्रेजी संपर्क में आते ही मम्मी-डैडी, आंटी-अंकल, पापा आदि शब्दों का प्रचार अत्यधिक मात्रा में हो गया। इय प्रकार सामाजिक विकास के साथ-साथ भाषा भी किस तरह विकसित एवं परिवर्तित होती रहती है, इसका स्पष्ट ज्ञान समाज विज्ञान से ही प्राप्त होता है।
भाषा के प्रयोग से विभिन्न शब्द आदरार्थ, (आप) सामान्य, (तुम) अनादारार्थ (तू), मूलत: समाज से ही सम्बद्ध हैं। अत: इनका अध्ययन भाषाविज्ञान समाज शास्त्र के बिना नहीं कर सकता। इसप्रकार भाषाविज्ञान के लिए समाज विज्ञान का होना नितांत आवश्यक है।
4) भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान
भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान का बहुत गहरा संबंध है। भाषा के माध्यम से मानव अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है। भाव निश्चित रूप से मन और मस्तिष्क से निःसृत होते हैं। इस प्रकार भाषाविज्ञान भाषा को सुलझाने के लिए मनोविज्ञान का बहुत सहारा लेने की अपेक्षा करता है। वाक्य विज्ञान और ध्वनि विज्ञान में इनके परिवर्तनों के कारणों और दिशाओं में मनोविज्ञान से सहायता प्राप्त करनी पड़ती है। इसी प्रकार 'अर्थ ' के प्रकरण में मनोविज्ञान सहायक सिद्ध होता है। सीधे शब्दों में, भाषा के अंगों में भाव के स्तर पर प्रयोग होता है और भावों का सीधा संबंध मन और मस्तिष्क से होता है, जिनके ज्ञान के लिए मनोविज्ञान भाषा वैज्ञानिक की सहायता करता है । भाषा की उत्पत्ति, विकास एवं सीखने में, विशेष रूप से बालकों को भाषा सिखाने में मनोविज्ञान हमारीसहायता करता है। दूसरी ओर मनोविज्ञान भी अपनी गुत्थियाँ सुलझाने में भाषाविज्ञान की सहायता लेता है। उदाहरण के लिए पागलों के ऊल-जलूल वाक्यों के विश्लेषण में मनोवैज्ञानिक को भाषाविज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। मनोविज्ञान ने ही यह बतलाया है कि भाषा का रूप शब्दमय और विचारमय दो प्रकार का होता है। अब तो दोनों के आपसी संबंध के महत्व को ध्यान में रखकर भाषा-मनोविज्ञान (Linguistic Psychology) या मनोभाषा विज्ञान (Psycholinguistic) मनोविज्ञान की एक नई शाखा के रूप में विकसित हो गई है।
5) भाषाविज्ञान और इतिहास
इतिहास के अंतर्गत हम जातियों की गाथा, उनके विकास और न्हास का अध्ययन करते हैं। इतिहास काल विशेष से सम्बद्ध भाषा पुस्तकों और शिलालेखों आदि में पाया जाता है। ये साधन, भाषाविज्ञान के लिए सामग्री प्रदान करते हैं। यहाँ इतिहास के तीन रूपों को लेकर भाषाविज्ञान के साथ परस्पर संबंध का निरूपण किया जा रहा है
(क) राजनीतिक इतिहास
किसी अन्य देश का राज्य किसी देश पर होने से उस देश की भाषा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। भारत पर मुसलमानों एवं अंग्रेजों के राज्य होने के कारण हजारों की संख्या में फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का हिंदी में प्रवेश इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। इसके विपरीत अंग्रेजी आदि में भी अनेक हिंदी शब्दों का ग्रहण हुआ है। इसी प्रकार हिंदी में अरबी, तुर्की और पुर्तगाली शब्दों आदि के आगमन के कारण जानने के लिए राजनीतिक इतिहास से सामग्री प्राप्त होती है। इनसे एक-दूसरे के राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों का ज्ञान प्राप्त होता है। अत: कहा जा सकता है भाषाविज्ञान और राजनीतिक इतिहास का घनिष्ठ संबंध है और दोनों ही एक दूसरे के अध्ययन में सहायता पहुंचाते हैं।
( ख) धार्मिक इतिहास
धर्म के रूप परिवर्तन का भी भाषा पर प्रभाव पड़ता है। भारत में हिंदी-उर्दू समस्या धर्म या सांप्रदायिकता के कारण ही है। इधर वैदिक कर्म-कांड या 'यज्ञ' आदि का लोकधर्म से समाप्त हो जाने के कारण अनेक शब्द जो .कभी प्रचलित रहे होंगे, आज अज्ञात हैं। व्यक्तिवाचक नामों को भी धर्म प्रभावित करता है, या फिर बँगला और मराठी में ब्रज भाषा शब्दों के प्रवेश का भी यही कारण हैं। धर्म के कारण ही अनेक बोलियाँ महत्त्वपूर्ण होकर भाषा बन जाती हैं। इसके उदाहरण मध्ययुगीन ब्रज एवं अवधी बोलियाँ हैं। दूसरी ओर धर्म की अनेक समस्याओं को हल करने में भाषाविज्ञान सहायक सिद्ध होता है। दो देशों के एक-दूसरे पर धार्मिक प्रभाव के अध्ययन में धर्म संबंधी शब्द बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। इस प्रकार भाषाविज्ञान और धार्मिक इतिहास एक-दूसरे के सहायक बनकर हमारे सामने आते है। (ग) सामाजिक इतिहास
सामाजिक परंपराओं, रूढ़ियों और व्यवस्था का प्रभाव भाषा पर पड़ता है; साथ ही, भाषा सामाजिक इतिहास पर प्रकाश डालती है। हम कह सकते हैं कि प्राचीन साहित्य में पति-विहीन स्त्री के लिए 'विधवा' शब्दका पाया जाता और पत्नीविहीन पुरुष के लिए कोई शब्द न मिलना, तत्कालीन समाज में स्त्री के लिए पक्षपातपूर्ण व्यवस्था का द्योतक है । इससे एक तथ्य सामने आता है कि विधवा के लिए पुनर्विवाह की व्यवस्था न थी किंतु पत्नी विहीन पति के लिए शब्द न मिलना पुनर्विवाह हो जाने की व्यवस्था का ही सूचक है। प्रागैतिहासिक खोजों के लिए भाषा कई-कई प्रकार से नए आयाम खोलती हैं, जैसे- भारोपीय परिवार की भाषाओं के अध्ययन के आधार पर भारोपीय मूल निवासियों के जीवन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। संस्कृत या अंग्रेजी में मौसी, बूआ आदि के लिए स्वतंत्र शब्द मिलते हैं, किंतु मौसा, फूफा आदि के लिए कोई शब्द न मिलना इस बात का परिचायक है कि तत्कालीन कौटुम्बिक व्यवस्था में 'मौसा', 'फूफा' आदि के लिए परिवार में विशेष स्थान प्राप्त न था। इसलिए इन शब्दों की उस समय विशेष आवश्यकता भी न थी। बाद में, आवश्यकतानुसार ये शब्द बना लिए गए हैं। इस प्रकार 'भाषाविज्ञान और इतिहास का घनिष्ठ संबंध है।
6) भाषाविज्ञान और भूगोल -
भाषाविज्ञान और भूगोल का गहरा संबंध है। भूगोल भाषाविज्ञान के लिए बड़ी मनोरंजक सामग्री प्रस्तुत करता है; जैसे - नदियों, नगरों, देशों आदि के नामों के रूप में सामग्री देना। भूगोल के आधार पर बहुत से पेड़ पौधे आदि अस्तित्व में होने के कारण अनेक नए नाम हमारे सामने आते हैं। उनके लोप हो जाने पर ये नाम भी लोप हो जाते हैं, जैसे- 'सोमलता' का नाम शायद इसीलिए जीवित भाषा में न हो। इसी प्रकार क्षेत्र के आधार पर जानवर, पक्षी, अन्न आदि के नामों का विकास होता है। क्षेत्र और उसके आकार एवं प्राकृतिक दशाएँ - नदी, पहाड़ आदि बाधाएँ भाषा के प्रसार में बाधक बनती हैं। यही कारण है कि जंगली और पहाड़ी जातियों में अनेक नवीन बोलियों का प्रसार हो जाता है। इसका कारण उनका आपस में न मिल सकना या कम मिलना है। अर्थ विचार में भी भूगोल भाषाविज्ञान की सहायता करता है। 'उष्ट्र' का अर्थ 'भैंसा' से ऊँट कैसे हो गया या 'सैंधव' का अर्थ 'नमक' ही क्यों हुआ; आदि समस्याओं पर विचार करने के लिए भूगोल की सहायता की अपेक्षा होती है। कुछ लोग उच्चारण अवयवों की विभिन्नता का कारण भौगोलिक मानते हैं, जो आधुनिक युग में अधिक उपयुक्त नहीं जान पड़ता । इधर ‘भाषा-भूगोल’ शाखा तो भूगोल के और भी निकट है और इसकी अध्ययन पद्धति भी भूगोल की पद्धति पर ही बहुत कुछ आश्रित है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए भूगोल से पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। दूसरी ओर भूगोल के प्रागैतिहासिक अध्ययन के लिए भाषाविज्ञान भी भूगोल की सहायता करता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषाविज्ञान मानव द्वारा अविष्कृत विभिन्न शास्त्रों एवं विज्ञानों से अपने अध्ययन की सामग्री ग्रहण करता है और उन्हें प्रभावित करता है। डॉ. मनमोहन गौतम के शब्दों में, "भाषाविज्ञान का सूक्ष्म से सूक्ष्म विज्ञान, मनोविज्ञान से लेकर ठोस भौतिक विज्ञान तक से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध अवश्य है। इसका एक कारण है और वह यह कि भाषा मनुष्य की भाव अथवा विचाराभिव्यक्ति की शक्ति है। वाणी मनुष्य की चेतना का प्रतीक है । अरूप भावों को शब्द अथवा ध्वनि रूप देने का श्रेय उसी को है। इसीकारण समस्त ज्ञान विज्ञान की एक मानव के मस्तिष्क तथा प्रेषणीयता उसी के द्वारा संभव है। अत: भाषा को ही अध्ययन का विषय बनाने वाले भाषाविज्ञान का संबंध सभी विज्ञानों से होना स्वाभाविक है।"
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